उत्तरकाशी में अष्टादश महापुराण मे श्रीमदभागवत कथा का श्रवण, देवडोलियों के भी हो रहे दर्शन,108 आचार्यों द्वारा भागवत का मूल परायण व यजमान पंडितों द्वारा विष्णुयाग में दी जा रही हैं आहुतियाँ

 

कथा में डॉ. श्यामसुंदर पाराशर बोले कथा तो सभी ने सुनी होगी किन्तु कथा का मर्म भी स्पर्श करें
गंगा तट पर रहने वाले लोगों का परम कर्तव्य है कि सुर सरिता मां गंगा को सदैव निर्मल व पवित्र बनायें रखने में योगदान करें
उन्होंने श्री कृष्ण प्राकट्य के साथ कंस की क्रूरता व मां देवकी की करूणा से भरी कहानी से दर्शकों को अश्रुओं से भावुक कर दिया।अष्टोत्तरशत (108) श्रीमद्भागवत महापुराण कथा में भागवत मर्मज्ञ डॉ. श्यामसुंदर पाराशर जी ने कहा कि ध्रुव की कथा तो सभी ने सुनी होगी किन्तु कथा का मर्म भी स्पर्श करें। वे ध्रुव की कथा सुनाते हुए बोले कि उत्तानपाद की दो पत्नियां थी सुनिति व सुरूचि। उन्हें छोटी रानी सुरूचि से इतना प्रेम हो गया कि बड़ी रानी सुनिति को पृथक कर दिया। सुनिति के गर्भ से पुत्र ध्रुव का व सुरूचि के गर्भ से पुत्र उत्तम का जन्म हुआ। दोनों रानियों के स्वभाव में बहुत अंतर था। सुनीति नीति पर चलने वाली शांत और सरल स्वभाव की थी तथा सुरुचि मनमानी करने वाली बहुत घमंडी थी। रानी सुनीति के पुत्र ने एक मां से पिता के बारे में जानना चाहा तो सुनिति से समुचित न मिलने पर मित्रों के साथ पिता के पास चले गये। ध्रुव ने पिता को अपना परिचय दिया तो उत्तानपाद ने ध्रुव गोद में बैठा लिया था तो सौतेली मां सुरुचि ने उसे झिड़क कर यह कहते हुए राजा की गोद से उसे उतार दिया कि पहले तपस्या कर परमात्मा से मेरी कोख से पैदा होने का फल मांगों तभी तुम इस सिंहासन बैठ सकोगे हो। अपमानित कर ध्रुव जी को भगा दिया रोते हुए घर आकर बालक ध्रुव ने अपनी माता को सारी बात बताई तो माता ने बड़े प्यार से समझाया जिन पिता ने तुम्हें गोद से उतार दिया उनसे बड़े एक जगत पिता भी हैं जिनकी गोद से कोई नीचे नहीं उतरता। ध्रुव बोले वे कहां मिलेंगे माताजी तो मां बोली वे तो कण-कण में विराजमान हैं। तब ध्रुव जी रातोंरात उस परमपिता की ढूंढ में निकल पड़े। रास्ते में नारद जी मिले पहले परीक्षा ली फिर दीक्षा देकर तप करने के लिए कहा। सद्गुरु का मंत्र पाकर यमुना तट पर तप करने लगे। ध्रुव मन ही मन भगवान के ध्यान में लीन थे तभी पांच माह तपस्या के बाद ध्रुव ने परमेश्वर को साक्षात् अपने सामने उपस्थित देखा। अत्यंत व्याकुल होकर उसने अनेक प्रकार से भगवान को प्रणाम किया। भगवान ने ध्रुव के माथे पर अपना शंख स्पर्श किया। ध्रुव को वेदों के सार का ज्ञान हो गया। ध्रुव की तपस्या और प्रार्थना से प्रसन्न होकर, भगवान ने उसे ध्रुवतारा के रूप में प्रसिद्धि प्रदान की। महाराज जी ने कहा हमारे पास भी सुनिति व सुरूचि की तरह दो बुद्धि हैं। सुंदर नीति की राह पर चले तो सुनिति या बुद्धिमानी व अविविकेकयुक्त कार्य करें तो सुरूचि। हम बातें तो नीति की करते हैं लेकिन प्रभाव में सूरूचि के रहते हैं जिससे आचरण व व्यवहार अपनी मर्जी के करने लगते हैं। नीति के अनुसार चलोगे तो लोग परलोक सुधर जायेंगे। सुरूचि के मार्ग पर चलते रहेंगे तो परलोक क्या इस लोक में भी सम्मान के साथ नहीं जी पाओगे। उन्होंने सगर पुत्रों के उद्धार के लिए मां गंगा के अवतरण की कथा भी सुनाते हुए कहा कि गंगा में बढ़ता प्रदूषण विडम्बना है। गंगा तट पर रहने वाले लोगों का परम कर्तव्य है कि सुर सरिता मां को गंगा को सदैव निर्मल व पवित्र बनायें रखें। श्री कृष्ण के प्राकट्य के साथ कंस की क्रूरता व देवकी की करूणा से भरी कहानी से दर्शकों को अश्रुओं से भावुक कर दिया। कंस के प्रकोप से बचने के लिए वासुदेव जी कान्हा को गोकुल ले जा रहे थे तो तभी यमुना में बाढ़ आई। यमुना को कृष्ण़ की पटरानी माना जाता है। यमुना बालकृष्ण के पैर छूना चाह रही थी। इसी प्रयास में नदी का पानी ऊपर उठने लगा। इसके बाद बालकृष्ण ने अपना पैर टोकरी से निकालकर बाहर रखा। कथा में नित्य की तरह 108 आचार्यों द्वारा भागवत का मूल पारायण व विश्वनाथ मंदिर में यजमान कथा के यजमानों यज्ञ पंडितो द्वारा विष्णु याग में आहुतियां दी जा रही हैं। कथा पांडाल में आयोजन समिति के पदाधिकारी सदस्य, स्वयंसेवक व सैंकड़ों श्रद्धालुओं के द्वारा देवडोलियों के दर्शन के पश्चात अष्टोत्तरशत श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण किया जा रहा है। आज काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत जयेन्द्र पुरी जी भी उपस्थित रहे।

 

 

https://youtu.be/VDFnJuuY4ys

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